या लकुटी अरु कामरिया पर,
राज तिहूँ पुर को तजि डारौं।
आठहुँ सिद्धि, नवों निधि को सुख,
नंद की धेनु चराय बिसारौं॥
रसखान कबौं इन आँखिन सों,
ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं।
कोटिक हू कलधौत के धाम,
करील के कुंजन ऊपर वारौं॥
No more noisy, loud words from me---such is my master's will. Henceforth I deal in whispers.
हम घूम चुके बस्ती-वन में इक आस का फाँस लिए मन में कोई साजन हो, कोई प्यारा हो कोई दीपक हो, कोई तारा हो जब जीवन-रात अंधेरी हो इक बार कहो तुम म...
रसखान की इन मुग्ध करती कालजयी पंक्तियों के लिये धन्यवाद ।
ReplyDelete'कोटिक हू कलधौत के धाम,
ReplyDeleteकरील के कुंजन ऊपर वारौं॥'
- अटूट श्रद्घा और पूर्ण समर्पण का नमूना.