Sunday, April 5, 2009

अंदर और बाहर बसी दुनिया 'तेज राम शर्मा'

यहाँ
मेरे अंदर बसती है एक दुनिया
ओर-छोर नहीं दिखता जिसका
बादलों की तरह उमड़ती है आकाश में
असंख्य चित्र बनाती और गिराती चली जाती है
मैं आकाश जैसे चित्रपट पर
बादल जैसी कल्पनाओं की
अठखेलियाँ देखता रहता हूँ
जहाँ मोरपंख हैं
हरियाली है
तितलियां हैं
पारदर्शी जल के नीचे
रंग-बिरंगी मछलियाँ हैं

वहाँ
मेरे बाहर बसती है एक दुनिया
पत्थर सी ठोस है
रेत-सी फैली है
धुएँ–सी आँखों को मलती है
रोटी जितनी गोल है
काली गुफ़ा सी मोहक है
जहाँ झरोखे जितना आकाश है
कापी के पन्नों को बाच दबे
तितली के पँखों जैसे सपने हैं

मैं अंदर और बाहर की दुनिया को
अक्षर-अक्षर नापता
दुर्गम चोटी की
अर्थहीन यात्रा पर निकलता हूँ
चोटी से जब पुकारता हूँ
तो मेरे शब्द निर्जन जंगल में गूँजकर
मेरे पास लौट आते हैं
रंगीन बादल
मेरे लिए बुनते हैं एक पैराशूट
जिसे थाम भरता हूँ एक अर्थहीन उड़ान
नदी किनारे की किसी अज्ञात चरागाह में
धराशायी होने को।

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