Thursday, January 8, 2009

गति (स्वरचित)

जी करता है, कुछ लिखूं,
लिखता ही चला जाऊं,
जीवन एक अबूझ पहेली,
इसी बारी सुलझाऊं !

कैसे सृजन हुआ सृष्टि का,
कैसे बने सितारें ?
कैसे बने चाँद और सूरज,
कैसे अगणित तारें ?

किसने सोचा, किसने गूंथा
साँसों का ताना बाना ?
किसका निश्चय, चले निरंतर
यूँ आना, यूँ जाना ?

क्या यह सब कुछ, स्वयं नियंत्रित
या कोई और चलाता ?
कहते जिसको परम नियंता,
क्या कोई विश्व विधाता ?

मन, बुद्धि, चित, अहम् - सभी जड़,
चेतन किस विधि मिल जाता ?
निज -निज से नित-नित हो विस्मित,
सुख दुःख भ्रम निपजाता

यह संगम तो क्षण भर का उपक्रम,
फ़िर गुण - गुण में मिल जाता
तब क्या चेतन, विलग हो जड़ से
भ्रम से निवृत्ति पाता ?
या हो मोहित, उसी छद्म में
मुक्ति की आस; अकुलाता ?

4 comments:

  1. An excellent work , a poem which has brilliant poetry and philosophical questions.

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  2. दार्शनिक चिंतन लिए एक सुंदर रचना के लिए साधुवाद.

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  3. Haa bahut badiya... badora bha kane bhi aapri likhiyonri rachnaye thi, mane ve dikhai thi.. ve bhi blog mate dol do ...

    Amar Singh

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