Thursday, May 22, 2008

तप रे !! "सुमित्रानंदन पन्त"

तप रे, मधुर मन!
विश्व-वेदना में तप प्रतिपल,

जग-जीवन की ज्वाला में गल,
बन अकलुष, उज्जवल औ\'
कोमलतप रे, विधुर-विधुर मन!

अपने सजल-स्वर्ण से पावन
रच जीवन की पूर्ति पूर्णतम

स्थापित कर जग अपनापन,
ढल रे, ढल आतुर मन!

तेरी मधुर मुक्ति ही बन्धन,
गंध-हीन तू गंध-युक्त बन,
निज अरूप में भर स्वरूप,
मनमूर्तिमान बन निर्धन!
गल रे, गल निष्ठुर मन!

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