Monday, January 3, 2011

कहूँ ये कैसे के जीने का हौसला देते 'खलीलुर्रहमान आज़मी'

कहूँ ये कैसे के जीने का हौसला देते
मगर ये है कि मुझे गम कोई नया देते

शब्-ए-गुज़श्ता बहुत तेज़ चल रही थी हवा
सदा तो दी पे कहाँ तक तुझे सदा देते

कई ज़माने इसी पेच-ओ-ताब में गुज़रे
के आस्मां को तेरे पाँवों पर झुका देते

हुई थी हमसे जो लग्जिश तो थाम लेना था
हमारे हाथ तुम्हें उम्र भर दुआ देते

भला हुआ कि कोई मिल गया तुम सा
वगरना हम भी किसी दिन तुम्हें भुला देते

मिला है जुर्मे वफ़ा पर अज़ाब-ए-मह्ज़ूरी
हम अपने आप को इससे कड़ी सज़ा देते

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