Thursday, March 26, 2009

वीरों का हो कैसा वसन्त 'सुभद्राकुमारी चौहान'

आ रही हिमालय से पुकार
है उदधि गरजता बार बार
प्राची पश्चिम भू नभ अपार;
सब पूछ रहें हैं दिग-दिगन्त
वीरों का हो कैसा वसन्त
फूली सरसों ने दिया रंग
मधु लेकर आ पहुंचा अनंग
वधु वसुधा पुलकित अंग अंग;
है वीर देश में किन्तु कंत
वीरों का हो कैसा वसन्त
भर रही कोकिला इधर तान
मारू बाजे पर उधर गान
है रंग और रण का विधान;
मिलने को आए आदि अंत
वीरों का हो कैसा वसन्त
गलबाहें हों या कृपाण
चलचितवन हो या धनुषबाण
हो रसविलास या दलितत्राण;
अब यही समस्या है दुरंत
वीरों का हो कैसा वसन्त
कह दे अतीत अब मौन त्याग
लंके तुझमें क्यों लगी आग
ऐ कुरुक्षेत्र अब जाग जाग;
बतला अपने अनुभव अनंत
वीरों का हो कैसा वसन्त
हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का हो कैसा वसन्त
भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का हो कैसा वसन्त

1 comment:

  1. वीरों का हो कैसा वसन्त 'सुभद्राकुमारी चौहान' की कालजयी रचना है. महेश प्रकाश पुरोहित जी
    झांसी वाली रानी है कविता से सुभद्रा जी को अमरत्व प्राप्त हुआ है लेकिन आपके द्बारा प्रस्तुत रचना देश भक्तों को समर्पित हैं और लोग बड़े सम्मान से गाते भी हैं
    चूंकि मैं सुभद्रा जी के शहर जबलपुर का ही रहने वाला हूँ, इस लिए आपकी पोस्ट से मुझे बेहद ख़ुशी हुई और पुरानी यादें भी ताजा हो आई जब हम उनकी कवताएँ और कहानियाँ पढा करते थे.
    -विजय तिवारी ' किसलय '

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