Thursday, May 22, 2008

जीवन, यह मौलिक महमानी "माखनलाल चतुर्वेदी"


जीवन, यह मौलिक महमानी!

खट्टा, मीठा, कटुक, केसला
कितने रस, कैसी गुण-खानी
हर अनुभूति अतृप्ति-दान में
बन जाती है आँधी-पानी

कितना दे देते हो दानी
जीवन की बैठक में, कितने
भरे इरादे दायें-बायें तानें स्र्कती नहीं भले ही
मिन्नत करें कि सौहे खायें!

रागों पर चढ़ता है पानी।।
जीवन, यह मौलिक महमानी।।

ऊब उठें श्रम करते-करते
ऐसे प्रज्ञाहीन मिलेंगे
साँसों के लेते ऊबेंगे
ऐसे साहस-क्षीण मिलेगे

कैसी है यह पतित कहानी?
जीवन, यह मौलिक महमानी।।

ऐसे भी हैं, श्रम के राही
जिन पर जग-छवि मँडराती है
ऊबें यहाँ मिटा करती हैं
बलियाँ हैं, आती-जाती हैं।

अगम अछूती श्रम की रानी!
जीवन, यह मौलिक महमानी।।

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